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कविता

गिर रही है बर्फ

बोरीस पास्तरनाक


गिर रही है बर्फ, गिर रही है
खिड़कियों के चौखटों के बाहर
इस तूफान में जिरानियम के फूल
कोशिश कर रहे हैं उज्‍जवल तारों तक पहुँचने की।

गिर रही है बर्फ
हड़बड़ी मची है हर चीज में,
हर चीज जैसे उड़ान भरने लगी है
उड़ान भर रहे हैं सीढ़ी के पायदान
मोड़ और चौराहे।

गिर रही है बर्फ
गिर रही है
रूई के फाहे नहीं
जैसे आसमान पैबंद लगा चोगा पहने
उतर आया है जमीन पर।

सनकी आदमी का भेस बनाकर
जैसे ऊपर की सीढ़ी के साथ
लुका-छिपी का खेल खेलते हुए
छत से नीचे उतर रहा है आसमान।

जिंदगी इंतजार नहीं करती,
इसलिये थोड़ा-सा मुड़ कर देखा नही
कि सामने होता है बड़े दिन का त्‍योहार
छोटा-सा अंतराल और फिर नया वर्ष।

गिर रही है बर्फ घनी-घनी-सी
उसके साथ कदम मिलाते हुए
उसी रफ्तार, उसी सुस्‍ती के साथ
या उसी के तेज कदमों के साथ
शायद इसी तरह बीत जाता है समय ?
शायद साल के बाद साल
इसी तरह आते हैं जिस तरह बर्फ
या जिस तरह शब्‍द महाकाव्‍य में।

गिर रही है बर्फ, गिर रही है
हड़बड़ी मची है हर चीज में :
बर्फ से ढके राहगीरों
चकित चौराहों
और मोड़ों के इर्द-गिर्द।

 


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